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शिव भक्ति में त्रिपुण्ड का महत्त्व एवं शिव भक्तों को त्रिपुण्ड क्यों धारण करना चाहिए ?

शिव भक्तों के लिए त्रिपुण्ड्र लगाने के बहुत ही महत्त्व है , त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्षको देनेवाला है। भौंहों के मध्य भाग से लेकर जहाँ- तक भौंहों का अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाटमें धारण करना चाहिये। यह भगवान शिव की उपासना एवं वैराग्य का प्रतीक है ।

शिव भक्तों को बत्तीस, सोलह, आठ अथवा पाँच स्थानों में त्रिपुण्ड्र का न्यास (धारण ) करना चाहिए । “मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथों, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों ऊरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिण्डली और दोनों पैर ” —ये बत्तीस उत्तम स्थान हैं, इनमें क्रमश: अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल तथा आठ वसुओं का निवास है। धर, ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास—ये आठ वसु कहे गये हैं।

लिंग पुराण के अनुसार : “त्रिपुण्ड्रं धारणं पुण्यं सर्वपापप्रणाशनम्।” अर्थात — त्रिपुण्ड धारण करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

त्रिपुण्ड क्या है?
ललाट (माथा ) एवं शरीर के अन्य निर्दिष्ट स्थानों में जो भस्म से तीन तिरछी रेखाएँ बनायी जाती हैं, उसी को त्रिपुण्ड्र कहा जाता है । त्रिपुण्ड्र लगाने के लिए मध्यमा और अनामिका अंगुलीसे दो रेखाएँ करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोम भाव से अथवा बीच की तीन अंगुलियों का उपयोग किया जाता है ।

त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं का अर्थ:

पहली रेखा – तमोगुण (अज्ञान, आलस्य, अंधकार) – यह अज्ञान, मोह और आलस्य का प्रतीक है। इसे मिटाने का संदेश देती है।

दूसरी रेखा – रजोगुण (इच्छा, क्रोध, लोभ) – यह रेखा सांसारिक इच्छाओं और कर्मों से मुक्त होने का प्रतीक है।

तीसरी रेखा – सत्त्वगुण (ज्ञान, शुद्धता, संतुलन) – यह आत्मज्ञान और शुद्धि का प्रतीक है। यह बताती है कि साधक को सत्त्वगुण की ओर बढ़ना चाहिए।

इस प्रकार त्रिपुण्ड तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) को पार कर आत्मा को ब्रह्म के साथ एकत्व की ओर ले जाने का प्रतीक है।

त्रिपुण्ड का संबंध ॐ (ओंकार) से भी बताया गया है: तीन रेखाएँ — अ, उ, म है जो मिलकर ॐ बनाती हैं, जो परम ब्रह्म का प्रतीक है।

त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगोंमें स्थित हैं।

प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रात: सवन तथा महादेव — ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं,

प्रणव का दूसरा अक्षर उकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा तथा महेश्वर – ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं।

प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद,तृतीयसवन तथा शिव—ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं।

जले हुए गोबर से प्रकट होनेवाला भस्म अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। वह भी त्रिपुण्ड्रका मुख्य अंग है, ऐसा कहा गया है। अनिष्टोंका उन्मूलन एवं शुभ कर्मोंका अंगीभूत यह भस्म त्रिपुण्ड्र के द्वारा ही प्रयुक्त होना चाहिये।

शिवलिंग पूजा से पहले त्रिपुण्ड लगाना आवश्यक माना गया है। यह बताता है कि शिव केवल बाहरी देवता नहीं, बल्कि अंतर्मन की चेतना हैं। भस्म का लेप और त्रिपुण्ड का तेज — यही तो शिवभक्त की पहचान है।”

त्रिपुण्ड्रं भस्मना लिप्तं, ललाटे यः धरेत्तु यः।
स पापं नाशयेत्सर्वं, शिवलोकं स गच्छति॥

अर्थात : जो व्यक्ति श्रद्धा से ललाट पर भस्म से त्रिपुण्ड धारण करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह शिवलोक को प्राप्त करता है।

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